महा शक्तिमान प्रेमने पृथ्वी पर अनेक रूप धारण किये हैं। बिल्व मंगल प्रेम के एक रूप की कथा है।
उच्च कोटि के ब्राम्हन का बेटा, धन दौलत की कमी नहीं, पत्नी चैदहवी के चाँद से भी सुन्दर, परन्तु प्रेम की मधुर बीना सुन के मंगल बावरे हो गये।
गंगा की मौजों में मौज लेती हुई नय्या में सवार पति पत्नि सुबह निकलते हुए सूर्य का स्वागत कर रहे थे कि चिन्तामणि की मधुर तान सुनई दी। मंगल ने मुड़ कर देखा और खो गया।
रम्भा के मंगल सच मुच चिन्तामणि में खो गये। रम्भा ने प्रेम की ओट में अपने पति के भेद छुपा रखे थे, लेकिन सुलगती हुइ आग दबाये से कब दबती है। एक दिन पिता ने आखें दिखांई, उसी दिन से मंगल ने घर आना छोड दिया।
चिन्तामणि ने भी वह दूकान बढ़ा दी जहाँ वह मुस्कराहटें बेंचा करती थी।
पिता को यही दुःख खा गया। सख्त बीमार पड़ गये। आख़िरी दर्शनों के लिये मंगल घर गये। बाप का डूबता हुआ दिल संभल गया। पंडित रामदास पथ भुले हुए मंगल को संभालने लगे। मंगल फिर छोड कर चल दिये।
यह सदमा पिता बरदास्त न कर सके। बेटे के मुँह मोड़ते ही प्रान छोड दिये।
अन्धेरी रात, मुसलाधार बरसात, तूफान का जोर, क्रोध भरी नदी का शोर, मंगल कुदरत से लढ़ाई करते हुए सांप को रस्सी और मुर्दे को तख्ता समझते हुए अपनी प्यारी चिन्तामणि तक पहुंचे। चिन्तामणि की आंखें खुल गईं। चिन्तामणि ने मंगल की खाँखें खोलदीं और फिर क्या हुआ यह रजतपट पर देखिये। किस तरह एकाएक इन्सान बदल जाता है। किस तरह ठुमरी टप्पे का प्यारा भगवान का दुलारा बन जाता है।
[from the official press booklet]